Sunday, September 14, 2014

सांभ गीत-संगीत की


बहुत पहले चम्बा के राजाओं ने अपने स्तुतिगान के लिए लखनऊ से अवधाल बुलाये जिनको कि साथ लगते गावं मंगला में बसाया गया , इन अवधालों ने कुंजड़ी - मलहार की रचना की , कुंजड़ी - मलहार में सावन ऋतु से संबधित गीत हैं जिनमें कि नारी की विरह वेदना का समावेश है
यानि की नायिका विरह में कुछ इस तरह से विभिन्न भाव भंगिमाओं के साथ अपनी वेदना को कुंजड़ी - मलहार के गीतों के माध्यम से प्रकट करती है जिसका मंचन आज भी चम्बा के कलाकारों के ज़ानिब मिंजर के मेले में देखने और सुनने को मिलता है
पहले कलेला के वक़्त (गोधूलि यानि शाम और रात के बीच का समय ) ये गीत गाये जाते रहे हैं लेकिन आज जब युवा वर्ग अपने लोक संगीत से विमुख हो रहा है तो ऐसे में मुफलिसी के दौर से गुजर रहे हमारे लोक कलाकारों से जब मर्जी परफॉर्म करवा लिया जाता है जबकि संगीत में हर राग रागिनी को सुनने और गाने का एक वक़्त होता है
लॉजिक साफ़ है कुंजड़ी - मलहार में हर उस नारी की विरह वेदना का समावेश है जिसका प्रियतम (पति या महबूब ) या तो कहीं दूर परदेस में नौकरी करने गया है या युद्ध में गया है भेड़ें चराने गया है या किसी भी बजह से गीत की नायिका से दूर है , ऐसी नारी जब शाम के वक़्त जब सबके पति घर आते हैं और उसका उससे दूर होता है तो ऐसे में इन गीतों के माध्यम से वो नारी अपने इमोशंस को एक्सप्रेस करती है
कुंजड़ी - मलहार के अंतगर्त बहुत सारे गीत गाए जाते हैं
जैसे कि
"गनिहर गरजे
मेरा पिया परदेस "
(गनिहर-मेघ )
सुन्दरा बेदर्दिया
अक्खी दा ना तू हेरया
कन्ना दा सुणया हो
तू ताँ अधि राति मेरे सुपणे च आया
(हेरया - देखा )
शब्द हैं
उड़ - उड़ कुँजड़िए , वर्षा दे धियाड़े ओ
मेरे रामा जींदेयां दे मेले हो
बे मना याणी मेरी जान , उड़ - उड़ कुँजड़िए
पर तेरे सुन्ने वो मडावां , रूपे दियां चूंजा हो
बे मना याणी मेरी जान , उड़ - उड़ कुँजड़िए
चिकनी बूंदा मेघा बरसे , पर मेरे सिज्जे हो
ओ मेरे रामा याणी मेरी जान , उड़ - उड़ कुँजड़िए
उच्चे पीपला पीहंगा पेइयां , रल-मिल सखियाँ झूटप गइयां हो
झूटे लांदीआं सेइयाँ हो , ओ मेरे रामा मना याणी मेरी जान ,
जींदे रेहले फिरि मिलिले , मुआ मिलदा ना कोई
बे मना याणी मेरी जान , उड़ - उड़ कुँजड़िए
कुंजड़ी एक चातक की तरह का पक्षी है
ए कुंजड़ी तू उड़
वर्षा के दिन आ गए हैं
मेरे प्रियतम को सन्देश दे , कि अब तो मिलने का समय आ गया
देख तू उन्हें अपने साथ लेकर आना , मैं तेरे पंख सोने से मड़वा दूँगी
चोंच चांदी से सजा दूँगी तू उड़ और मेरा काम करके आ
वर्षा की ऋतु है , मेरे पंख भीग जाएंगे , मैं कैसे उड़ूँगी ,
सन्देश देकर आती अन्यथा मैं जरूर जाती ,
ऊंचे पीपल पर झूले पड़े हैं , मिल जुल कर सहेलियां झूला झूलने गयी
परन्तु मुझे मेरे प्रीतम की याद , उदास बना देती है
कुंजड़ी उड़ और उड़ कर जा
ज़िन्दगी रही तो फिर मिलेंगे , फिर कई बरसातें आएँगी
ए कुंजड़ी तू उड़ कर जा , और मेरे प्रीतम को संदेसा दे कर आ
मलहार
मेरे लोभिया हो , आ घरे हो , मैं निक्की याणी हो
मैं निक्की याणी ,
जीउ कियां लाणा हो कंथा , मेरेया लोभिया हो , आ घरे
सेज रंगीली ना सेज रंगीली , मेरे जाया परदेस हो कंथा
मेरे लोभिया हो , आ घरे हो
पाई के बसीले ना पाई के बसीले , ते याणी जिंद ठगी हो कंथा
मेरे लोभिया हो , आ घरे हो
मेरे लोभी पति घर आ , मैं अस्वस्थ हूँ
मेरे प्रियतम मैं मन कैसे लगाऊँ
मेरे लोभी प्रियतम घर आओ
मैं चाव से सेज बिछाती हूँ , मेरे परदेसी कंत
मेरे लोभी प्रियतम घर आओ
तूने मुझसे प्रेम जता कर , मेरा कोमल जीवन ठगा है
सबसे दुखद पहलू हमारी परम्पराओं को सहजने के काम को लेकर ये रहा है हम लोग अपनी रिवायतों से इस कदर विमुख हो बैठे हैं कि स्थानीय स्तर पर हम लोगों को अपनी संस्कृति की जानकारी नहीं है।
( अवधाल यानी कि संगीतज्ञ वैसे अवधाल फ़ारसी का शब्द है लेकिन उस वक़्त फ़ारसी , उर्दू आदि भाषाओँ का पहाड़ी रियासतों में प्रभाव रहा है )
साभार: अरविंद शर्मा, धर्मशाला 

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