Sunday, September 14, 2014

ख़ुदा ख़ैर करे

मुजफ्फरनगर दंगों के बाद
ज़ख्म हंस रहे हैं क्योंकि...
अब रोना नहीं आता
अब नहीं बहते आंसू
जब अपनों की भीड़ में
कोई अपना ही उठा लेता है खंजर
मेरी नंगी पीठ पर घोंपने के लिए...
ज़ख्म हंस रहे हैं क्योंकि...
मरहम करने वाले हाथ ही
गला दबोचने को बढ़े चले आते हैं
फिर पसर जाते हैं गलियों में
और ज्यादा ताकत बटोरने के लिए
खून के बचे कतरे निचोडऩे के लिए...
ज़ख्म हंस रहे हैं क्योंकि...
अब भी नहीं सीख पाया मैं
अपनी जिंदा लाश को सियारों से बचा पाना
हर बार ‘उनके’ हवाले कर देता हूं
अपना वजूद, अपना चैन, अपना अमन
वो रौंद जाते हैं मेरी हड्डियां भी मंजिल पाने के लिए...
ज़ख्म हंस रहे हैं क्योंकि...
सडक़ों पर फैला खून अब नसों में नहीं भर सकता
कुछ मजमे लग सकते हैं इन पर
सफेदपोश होकर, चमक-दमक के साथ
मजहब के चंद जुमले पढ़े जा सकते हैं
आने वाली नस्लों को बचाने की दुहाई देने के लिए...

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