Thursday, October 2, 2014

हालात

कफ्नाई हुई यादों से पर्दा हटा सकता नहीं
मैं हालात-ए-इश्क का फ़र्दा बता सकता नहीं

सदाएं दे रहा माज़ी को मुस्तक़बिल मेरा लेकिन
मैं मशरिक़ की हवा मग़रिब बहा सकता नहीं

गुलज़ार जो चमन था अब वीरान हो गया
मैं ग़ुलो-बाज़ार से उसको सजा सकता नहीं

सादिक़ है मेरा यार तो सहर भी रात है
सहरा के तपते संग को शबनम बता सकता नहीं

पलभर की वो रफ़ाक़त जो आज़ार बन गई
बेज़ार होती उल्फ़त जन्मों निभा सकता नहीं

मेरे अफ़कार चुभते होंगे तलवार की मानिंद
ख़ुदा बख़्शे मैं चेहरे पे पर्दा चढ़ा सकता नहीं

फ़र्दा : आने वाला कल
मशरिक़ : पूर्व
मग़रिब : पश्चिम
सादिक़ : सच्चा
रफ़ाक़त : साथ, दोस्ती
आज़ार: रोग
अफ़कार : रचनाएं

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